कहानी संग्रह >> नहीं रहमान बाबू नहीं रहमान बाबूजोगिन्दर पाल
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जोगिंदर पाल इस वक्त हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले कहानीकार है, उनकी एक बेहद दिलचस्प और नए अंदाज़ में लिखी किताब...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘पहली बार जब जोगिंदर पाल से मिला तो वो ठीक अपनी
शक्ल, किरदार और आदतों के एतबार से एक मालदार जौहरी नज़र आया। बाद में
मुझे मालूम हुआ कि मेरा ख़्याल ज़्यादा गलत भी नहीं था। वो जौहरी तो ज़रूर
है लेकिन हीरे-जवाहरात का नहीं, अफ़साने का–और मालदार भी है लेकिन
अपनी कला में...’
-कृशन चंदर
इन अफ़सानों में कहानीकार अपने किसी ख़्याली दोस्त या रूहानी साथी से बातें करता रहता है, जो पूरे वक़्त ख़ामोशी अख़्तियार किए हुए है। छोटे-छोटे तीखे डायलॉगों के ज़रिए कहानीकार ज़िंदगी को लेकर अपने नज़रिए, प्रेम और दूसरे कई छोटे-बड़े मसलों को सामने रखता है कभी-कभी ये बहुत मामूली बातें होती हैं जो हमें अंदर ही अंदर खाए जाती हैं। एक अदाकार की सी नफ़ासत से कहानीकार अफ़गानिस्तान, इराक़ और आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग जैसे नाजुक मुद्दों को छूता है। बातों-बातों में वह अपने ही अहम किरदारों द्वारा जी जा रही दोहरी ज़िंदगी की थाह भी लेता है।
नहीं रहमान बाबू
नहीं रहमान बाबू, जी छोटा मत करो। तुम्हारा
महबूब जहां भी
है, अपने वजूद में तो है। तुम बस इतना करो कि उसके वजूद के किवाड़ खटखटाते
चले जाओ, कभी ना कभी वह आप ही किवाड़ खोल कर तुम्हारे सामने आ खड़ा होगा
और मुस्करा कर कहेगा–आओ अंदर आ जाओ, बाहर क्यों खड़े हो ?
हां रहमान बाबू, मेरी कहानी तो अधूरी रह गई–नहीं बाबू, हर कहानीकार हर दौर में अपनी कहानी को अधूरा छोड़ कर अपनी राह लेता है। उसे जो अभी पेश आना होता है वह किसी आने वाली नस्ल के कहानीकार को पेश आता है। नहीं बाबू, जो उसे पेश ही नहीं आया, वह उसे क्योंकर लिख कर पूरा करे। हां, यही तो है। आदमी बेचारा टूट-फूट जाता है पर ज़िंदगी तो अटूट है, उसे कोई एक ही जन्म में कैसे पूरा कर ले ?–हां इसीलिए मेरा कहना है कि मैं ही चैकोफ़ हूं, मैं ही प्रेमचंद, मैं ही मंटो–और वह भी कोई जिसे अभी पैदा होना है–हां बाबू, मैं इसलिए बारबार जन्म लेता हूं कि अपना काम पूरा कर लूं पर मेरा काम हर बार अधूरा रह जाता है–नहीं, अच्छा ही है कि अधूरा रह जाता है, इसीलिए तो जिंदगी का अंत नहीं है बाबू !
नहीं रहमान बाबू, तुम ख़्वामख़्वाह ताज्जुब कर रहे हो। मेरे भी तो एक की बजाय दो सिर हैं–कैसे ?–ऐसे बाबू कि अपने एक सिर से मैं कुछ अच्छा सोचता हूं और एक सिर से कुछ बुरा–हां, इसीलिए कुछ अच्छा हूं कुछ बुरा। हर एक के साथ यही तो होता है। नहीं, तुम इस बच्चे की सूरत पर बिना वजह ताज्जुब कर रहे हो। इसके भी दो सिर हैं तो क्या हुआ ? हां बाबू, रावण की तरह पूरे दस सिर हों तो ज़रूर ताज्जुब की बात है। पर वह तो किसी रावण के ही हों, तो हों ?
रहमान बाबू, वह अपने जूते यहां भूल नहीं गया। हुआ यह कि जीवन के चालकों ने उसके जूते यहीं, बाहर की दहलीज़ पर उतरवा लिए और वह नंगे पांव दहलीज़ को पार करके बाहर निकल गया कि अभी लौट आऊंगा। नहीं, उसे क्या मालूम था कि कोई एक बार दहलीज़ पार कर जाए तो वापिस नहीं आ सकता।
नहीं बाबू, बाहर का भीतर हमारे भीतर की तरह थोड़े ही है। बाहर का भीतर तो बेअंत है जिसमें दाख़िल हो कर आदमी नामालूम कहां खो जाता है। हां बाबू, जब मालूम ही ना हो कि कहां निकल आए तो कोई लौटेगा कहां से ?–नहीं, वह अब कभी नहीं लौटेगा।
हां, हां, क्यों नहीं ? जूते पूरे आते हों तो शौक से पहन लो और यहां से यहीं तक मज़े से जहां चाहो घूमो-फिरो-नहीं, अपनी खाल से बाहर ही नहीं निकलोगे तो खोओगे कैसे ?
मैंने भी आज के अख़बार में यह ख़बर देखी है रहमान बाबू–हां, यही कि तमिलनाडु के किसी इलाक़े में कुछ लोग चूहे खा-खा कर गुज़ारा कर रहे हैं। नहीं बाबू, तमिलनाडु सरकार ने बयान दिया है कि उनके यहां खुराक की ऐसी भी कमी नहीं है। इन लोगों को बस चूहे खाने की आदत पड़ गई है। हां, सरकार ठीक कहती है बाबू, पर आदत भी तो उसी चीज़ की पड़ती है जो मिल सके। अगर इन लोगों को सिर्फ चूहे मिलते हैं तो वे दाल-रोटी की आदत कैसे डालें ?
हां रहमान बाबू, मेरी कहानी तो अधूरी रह गई–नहीं बाबू, हर कहानीकार हर दौर में अपनी कहानी को अधूरा छोड़ कर अपनी राह लेता है। उसे जो अभी पेश आना होता है वह किसी आने वाली नस्ल के कहानीकार को पेश आता है। नहीं बाबू, जो उसे पेश ही नहीं आया, वह उसे क्योंकर लिख कर पूरा करे। हां, यही तो है। आदमी बेचारा टूट-फूट जाता है पर ज़िंदगी तो अटूट है, उसे कोई एक ही जन्म में कैसे पूरा कर ले ?–हां इसीलिए मेरा कहना है कि मैं ही चैकोफ़ हूं, मैं ही प्रेमचंद, मैं ही मंटो–और वह भी कोई जिसे अभी पैदा होना है–हां बाबू, मैं इसलिए बारबार जन्म लेता हूं कि अपना काम पूरा कर लूं पर मेरा काम हर बार अधूरा रह जाता है–नहीं, अच्छा ही है कि अधूरा रह जाता है, इसीलिए तो जिंदगी का अंत नहीं है बाबू !
नहीं रहमान बाबू, तुम ख़्वामख़्वाह ताज्जुब कर रहे हो। मेरे भी तो एक की बजाय दो सिर हैं–कैसे ?–ऐसे बाबू कि अपने एक सिर से मैं कुछ अच्छा सोचता हूं और एक सिर से कुछ बुरा–हां, इसीलिए कुछ अच्छा हूं कुछ बुरा। हर एक के साथ यही तो होता है। नहीं, तुम इस बच्चे की सूरत पर बिना वजह ताज्जुब कर रहे हो। इसके भी दो सिर हैं तो क्या हुआ ? हां बाबू, रावण की तरह पूरे दस सिर हों तो ज़रूर ताज्जुब की बात है। पर वह तो किसी रावण के ही हों, तो हों ?
रहमान बाबू, वह अपने जूते यहां भूल नहीं गया। हुआ यह कि जीवन के चालकों ने उसके जूते यहीं, बाहर की दहलीज़ पर उतरवा लिए और वह नंगे पांव दहलीज़ को पार करके बाहर निकल गया कि अभी लौट आऊंगा। नहीं, उसे क्या मालूम था कि कोई एक बार दहलीज़ पार कर जाए तो वापिस नहीं आ सकता।
नहीं बाबू, बाहर का भीतर हमारे भीतर की तरह थोड़े ही है। बाहर का भीतर तो बेअंत है जिसमें दाख़िल हो कर आदमी नामालूम कहां खो जाता है। हां बाबू, जब मालूम ही ना हो कि कहां निकल आए तो कोई लौटेगा कहां से ?–नहीं, वह अब कभी नहीं लौटेगा।
हां, हां, क्यों नहीं ? जूते पूरे आते हों तो शौक से पहन लो और यहां से यहीं तक मज़े से जहां चाहो घूमो-फिरो-नहीं, अपनी खाल से बाहर ही नहीं निकलोगे तो खोओगे कैसे ?
मैंने भी आज के अख़बार में यह ख़बर देखी है रहमान बाबू–हां, यही कि तमिलनाडु के किसी इलाक़े में कुछ लोग चूहे खा-खा कर गुज़ारा कर रहे हैं। नहीं बाबू, तमिलनाडु सरकार ने बयान दिया है कि उनके यहां खुराक की ऐसी भी कमी नहीं है। इन लोगों को बस चूहे खाने की आदत पड़ गई है। हां, सरकार ठीक कहती है बाबू, पर आदत भी तो उसी चीज़ की पड़ती है जो मिल सके। अगर इन लोगों को सिर्फ चूहे मिलते हैं तो वे दाल-रोटी की आदत कैसे डालें ?
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